1. प्रार्थना
” प्रार्थना” एक विचार नही ,
कोई एक क्रिया नही ,
यह एक भाव दशा है ,
जिसमें समर्पण के सिवा कोई प्रश्न नही ,
निज पुकार के सिवा कोई
आग्रह नहीं ।
” प्रार्थना “
में केवल वियोग और विरह के
आँसू होते हैं ।
अदॄश्य से आलिंगन की आकांक्षा होती है और
श्रद्धा में झुका पुरा अस्तित्व होता है ।
जिस क्षण
“प्रार्थना ” से भाव विदा हो जाते हैं , फिर
” प्रार्थना ” एक दिखावा भर रह जाता है ।
” प्रार्थना ” की आत्मा उसके भाव में विधमान
होती है ,क्रिया में नही ।