आखिर क्यों और कैसे , ” कर्ण”
जैसा योद्धा और दानवीर
केवल प्रतिशोध और अपमान के कारण
“अधर्म ” और “अन्याय ” के पक्ष में खडा
हो जाता है ?
वास्तव में
प्रतिशोध और अपमान में लिया गया फैसला,
कभी भी न्यायसंगत और न्याय प्रिय नहीं हो सकता ।
क्योंकि निर्णय तथ्यों के आधार पर नही ,
प्रतिशोध के आधार पर लिया गया था ।
वह कसूरवार है या बे-कसूर,
कहना मुश्किल होगा ।
परिस्थितिया “कर्ण ” को जिंदगी के जिस मोड पर
खडा कर देती है ,वह अधर्म और अन्याय का मंच था ,
जहाँ सत्य और न्याय के लिये कोई गुंजाइस नहीं थी ।
दानवीर कर्ण हो या फिर गंगा पुत्र ” भिष्म “
सब की अपनी अपनी मजबूरीया रही होगी ,
कोई ऐसे बेवफा नही हो जाता ,
परन्तु जब आपका उदे्श्य और आदर्श
महान हो, तो व्यक्तिगत मजबूरियों का कोई अर्थ नहीं
होता ।
वासुदेव “कृष्ण ” महाभारत के नायक इसलिए है
कि वे सत्ता और सिंहासन के लिये नही ,बल्कि
धर्म और न्याय के लिये पान्डवो के पक्ष में खडे थे ।
वही कर्ण और भिष्म पितामह
जैसे महान योद्धा अपने आत्मघातीक निर्णय
के कारण अधर्म के दरबार में विराजमान थे ।
यह नियति का खेल था या फिर अपनी मजबूरियों
और कमजोरियो का परिणाम ,अब यह
इतिहास तय करेगा ।
कर्ण जैसा योद्धा और पितामह भीष्म जैसा तपस्वी
कभी कमजोर और विवेकहीन नही हो सकता ,परन्तु
अपनी अपनी विवसता में लिया गया फैसला ही उनके अन्त का कारण बनता है ।
भरी सभा में द्रौपदी के चिर हरण के वक्त पितामह
के “मौन “को इतिहास कभी माफ नही करेगा ।
यह जिंदगी की स्वतंत्रता और खुबसूरती है और अभिशाप भी ,
जिसमें हम अपने निर्णय और चुनाव के लिए खुद जिम्मेदार और कसूरवार होते हैं कोई दुसरा नही ।
यह सर्वमान्य सत्य है कि हमारे निर्णय और चुनाव ही
यह सुनिश्चित करते है कि हमारे जिंदगी के हिस्से में स्वर्ग होगा या नर्क ।