जिस व्यक्ति ने
“ज़िन्दगी ” का पता
ढूढ़ लिया ,
उसे “जिन्दगी ” का हर राज़
.हाथ लग जाता है ।
यक्ष प्रश्न भी यही है कि
जिन्दगी का पता
ढुढा़ कैसे जाय ?
आज जीवन में चारो तरफ
जो दुःख और क्लेश है ,
असफलता और विफलता है ,
विघटन और विखराव है ,
आखिर क्यों है ?
क्योंकि हम स्वंय की “ज़िन्दगी “
से वाकिफ़ नहीं है ।
पहले पूछा जाता था कि
आप कौन हो ?
आज पूछा जाता है कि आप क्या हो ?
दोनो के सवाल और जवाब में
जमीन और आसमान का अन्तर है ।
” ज़िन्दगी “
अपने अनुभव रूपी ज्ञान से
पहले खुद को जांचती और परखती है ,
बडे़ ही निर्ममता से ठोकती और पिटती है ,
ताकि खुद को काबिल बना सके ,
फिर खुद को सजाती और सँवारती है ।
अब “ज़िन्दगी”
पहली बार अपनी मंजिल ,अपने प्रयोजन ,
और अपने मकसद को
रेखांकित करती है कि
मुझे जाना कहाँ है ?
अपने को उस सरोकार और उस प्रयोजन
से खुद को जोड़ती है ,
जो उसका असली “पता ” होता है ।
वास्तव में
” ज़िन्दगी” का “पता”
उसके मक़सद से ही पता चल जाता है कि
उसे जाना कहाँ है ? और पाना क्या है ?
सफलता मिले या न मिले ,
परन्तु ज़िन्दगी
अपने मकसद ,अपने सरोकार और
अपने प्रयोजन से ही
अपनी “पहचान ” को मकबूल करती है ।
यह “पहचान ” ही
ज़िन्दगी का पता है ,जीसे लोग
बडे़ शिद्दत से याद रखते हैं ।