76. जिन्दगी का पता

जिस व्यक्ति ने 

“ज़िन्दगी ”  का  पता

 ढूढ़  लिया ,

 उसे   “जिन्दगी ” का  हर  राज़ 

 .हाथ लग जाता है ।

 यक्ष प्रश्न  भी यही है कि

 जिन्दगी का पता 

 ढुढा़ कैसे जाय ?

 आज  जीवन में  चारो तरफ

 जो दुःख और क्लेश है ,

 असफलता और  विफलता है ,

 विघटन  और ‌ विखराव  है  ,

 आखिर क्यों है ?

 क्योंकि  हम स्वंय  की  “ज़िन्दगी “

 से वाकिफ़ नहीं  है । 

 पहले  पूछा जाता था  कि

 आप कौन हो ?

 आज पूछा जाता है कि आप क्या हो ?

  दोनो के सवाल और जवाब में

  जमीन और आसमान  का अन्तर  है ।

 ” ज़िन्दगी “

   अपने  अनुभव रूपी ज्ञान से

   पहले खुद को  जांचती  और परखती है ,

    बडे़   ही  निर्ममता   से  ठोकती  और  पिटती है ,

    ताकि खुद को काबिल बना सके ,

   फिर खुद को  सजाती और  सँवारती है ।

  अब  “ज़िन्दगी”

  पहली बार  अपनी मंजिल ,अपने प्रयोजन ,

  और अपने मकसद को 

  रेखांकित करती है कि

  मुझे जाना कहाँ है ?

  अपने को  उस सरोकार और उस प्रयोजन 

  से  खुद को  जोड़ती है ,

  जो उसका असली “पता ” होता है ।

 वास्तव में

” ज़िन्दगी” का  “पता”

उसके मक़सद से ही पता चल जाता है कि

उसे जाना कहाँ है ?  और पाना क्या है ?

सफलता मिले  या  न  मिले ,

परन्तु  ज़िन्दगी 

अपने मकसद ,अपने सरोकार और

 अपने प्रयोजन से ही 

 अपनी “पहचान ” को मकबूल करती है  ।

 यह “पहचान ” ही 

 ज़िन्दगी का पता है ,जीसे लोग

 बडे़ शिद्दत से याद रखते हैं ।

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