48. sex and salvation

विमर्श  “शास्त्र ” की नही ,

  ” धर्म ” की है ।

   बात  “वासना” की  भी नही ,

 ”  अस्तित्व  ” की  है ।

   “धर्म” में जो‌ कुछ भी शुभ है ,

    वह ” आन्तरिक  बदलाव ” की है ।

  ”  शास्त्र ‘ के पास देने के लिये

   ” अहंकार “के सिवा कुछ नही होता ।

    हमारे “आन्तरिक बदलाव ” में इनकी कोई सार्थक

    भूमिका नही होती ।

    यहाँ सब कुछ जान लेने के ” भ्रम ” से

    कुछ  भी  हासिल नही होता  ।

  ”  वास्तविक ज्ञान ” के लिए गुरू के चरणों

    में बैठना पड़ता है ।

   “संसार” क्या है ?

   “अस्तित्व” को  वासना के धरातल पर

    जीना ही  “संसार ” है ।

    जब हम अपने जीवन को अध्यात्म के

    लिए समर्पित करते हैं तो वह “धर्म”

    हो जाता है ।

    मूल प्रश्न  भी यही है कि आप

    अपने अस्तित्व को वासना के साथ

     जोड़ते हैं या धर्म के साथ ?

    आपकी मंजिल यहीं  तय हो जाती है कि

    आप जाना कहा ँ चाहते हैं ?

    आप अपने जीवन में पाना क्या चाहते हैं ?

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