“भक्ति “
कोई पुजा का विधान नही और
न ही कोई कर्मकांड है ।
यह तो एक आन्तरिक प्रकिया है ,
जो निरन्तर चलती रहनी चाहिए ।
ज्ञानी जहाँ
अपनी ज्ञान की तलवार से
” माया” पर विजय हासिल करता है ,वही
भक्त “महामाया” के चरणों में
खुद को समर्पित कर देता है ।
यहाँ ज्ञानी का अभिमान नहीं ,
बल्कि भक्त का समर्पण और उसकी श्रद्धा
ही उसकी पूँजी होती है ।
” भक्ति” की शुरूआत
एक दृढ़ संकल्प से शुरू होती है ,
जो आत्मनिरीक्षण ,आत्मपरिष्कार और
आत्ममोत्थान के विभिन्न चरणों से गुजरती
हुयी ईश्वर प्राप्ति पर समपन्न होती है ।