71. अपना अपना कुरुक्षेत्र

कुछ कहने से पहले 

बोलने की तमीज़ सीख ।

लिखने  से पहले

पढ़ने के काबिल बन और

जिन्दगी जीने  के  पहले

जिन्दगी की समझ अपने में पैदा कर ।

तब कहीं जाकर जिन्दगी

मुकम्मल तरिके से अपनी तस्वीर

पेश कर पाती है ।

आज

हर  “अर्जुन” अपनी

जिन्दगी के जिस कुरुक्षेत्र में

अपने को खडा़ पाता है ,

वहाँ उसे जिन्दगी  “अर्जुन ” और  “कृष्ण”

की दोहरी भूमिका में देखना

चाहती है ।

कहीं “अर्जुन” का संश्य  और अनिश्चय‌ है 

तो वही  “कृष्ण “का लक्ष्य के प्रति

कठोर और निर्मम संदेश ।

“अर्जुन”

का यही तो द्वद है कि उचित और

अनिवार्य क्या है ?

तभी “कृष्ण” का आदेश आता है कि

“अर्जुन” उठा गान्डीव 

बिना किसी प्रतिक्षा के  “कर्ण”

पर प्रहार कर !

आज “कर्ण” शस्त्रविहीन है तो

तेरे प्रचण्ड पराक्रम के कारण ,

प्रहार करो “र्अजुन” !

इस प्रकार  “कृष्ण” अनिर्णय और अनिश्चय से

“अर्जुन ” को  मुक्त कर उसे

“एक्शन” के लिए बाध्य करते हैं ।

धर्म – अधर्म

पाप- पुण्य

न्याय – अन्याय

इतिहास को तय करने दो अर्जून !

तू इसकी चिन्ता क्यों करता है ?

दुनिया तुझे तेरे पराक्रम और तेरी विरता

के लिए याद रखेगी ,

तेरे धन ,धर्म और धाम के लिए नहीं ।

“गीता”

 में “वासुदेव कृष्ण “पुरी मानवता को

 यही तो संदेश देना  चाहते हैं ।

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