विमर्श “शास्त्र ” की नही ,
” धर्म ” की है ।
बात “वासना” की भी नही ,
” अस्तित्व ” की है ।
“धर्म” में जो कुछ भी शुभ है ,
वह ” आन्तरिक बदलाव ” की है ।
” शास्त्र ‘ के पास देने के लिये
” अहंकार “के सिवा कुछ नही होता ।
हमारे “आन्तरिक बदलाव ” में इनकी कोई सार्थक
भूमिका नही होती ।
यहाँ सब कुछ जान लेने के ” भ्रम ” से
कुछ भी हासिल नही होता ।
” वास्तविक ज्ञान ” के लिए गुरू के चरणों
में बैठना पड़ता है ।
“संसार” क्या है ?
“अस्तित्व” को वासना के धरातल पर
जीना ही “संसार ” है ।
जब हम अपने जीवन को अध्यात्म के
लिए समर्पित करते हैं तो वह “धर्म”
हो जाता है ।
मूल प्रश्न भी यही है कि आप
अपने अस्तित्व को वासना के साथ
जोड़ते हैं या धर्म के साथ ?
आपकी मंजिल यहीं तय हो जाती है कि
आप जाना कहा ँ चाहते हैं ?
आप अपने जीवन में पाना क्या चाहते हैं ?