17. ” असहमति ” में उठे हाथ

सार्वजनिक  जीवन में

व्यक्ति की  “विचारधारा ” ही उसकी

समाजिक भूमिका और  उसके  सरोकार को

सुनिश्चित करती है कि वह जन हित के लिए

 लड़  रहा है या उसकी लडा़ई 

 सिर्फ सत्ता  और  सिंहासन  की  है?

 संर्घष सत्ता के लिये हो या सिंहासन के लिये

 या फिर धर्म  और न्याय के लिये ,

 परन्तु इसमें किसी भी सुरत में

 हिंसा की कोई जगह नही होनी चाहिए ।

 हमारे देश की संस्कार  और संस्कृति में,

 जीवन – दर्शन और उसके  चिन्तन में

 दूर दूर तक हिंसा की कोई जगह नही है ।

 हिंसा  का उदेश्य कितना भी पवित्र और महान

 हो , पर भारतीय जन मानस  कभी भी

 स्वीकार नही करता है । क्योंकि

 हिंसा के पास शान्ति और समन्वय का कोई पैग़ाम नही होता ।

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